कोंडागांव मेला के बारे में जानकारी –
कोंडागांव मेला मेले के पहले दिन कोंडागांव के कुम्हारपारा स्थित बूढ़ी माता मंदिर में पटेल, गायता, पुजारी व सभी ग्रामीण एकत्रित होकर ढोल-नगाड़े, मोहरीबाजा आदि पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन के साथ बूढ़ी माता की पालकी लेकर मेला स्थल पहुंचते हैं। बूढ़ी माता या डोकरी देव के आगमन के बाद नगर में आगंतुक देवी-देवताओं का स्वागत सत्कार होता है। इसके पश्चात मेले की प्रमुख देवी पलारी से आई देवी पलारीमाता द्वारा मेला स्थल का फेरा लगाया जाता है। देवी-देवताओं के लाट, आंगा, डोली आदि की मेला में फेरा लगाने के दौरान महिलाएं उत्सुकतापूर्वक चावल व पुष्प अर्पण कर खुशहाली की कामना करती है। बाद में अन्य सभी देवी-देवता मेला की परिक्रमा करते हैं। कोंडागांव मेले में फेरे के दौरान कुछ देवी-देवता लोहे की कील की कुर्सियों में विराजमान रहते हैं। मेला परिक्रमा के पश्चात देवी-देवता एक जगह एकत्रित होकर अपनी अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं। जिसे देव खेलाना या देव नाच कहते हैं।
KONDAGAON MELA
फागुन पूर्णिमा के पहले मंगलवार केा माता पहुंचानी (जातरा) का आयोजन होता है;जिसमें गांव के प्रमुख पटेल,कोटवार एकत्रित होकर देवी-देवताओं का आहवान कर उन्हें मेला हेतु आमंत्रित करते है तथा देवताओं से मांग की जाती है कि आने वाले साल भर खेती कार्य, जनवार इत्यादि में किसी प्रकार का प्रकोप बीमारी जैस विघ्न ना आये। इसके अगले मंगलवार को देवी-देवताओें का आगमन होता है तथा ग्राम देवी के गुड़ी मंदिर में एकत्रित होकर मेला परिसर की परिक्रमा कर मेले के शुभारंभ की घोसणा की जाती है। इस मेले में परंपरा रही है कि बस्तर राजा पुरूषोत्तम देव के प्रतिनिधि तौर पर तहसील प्रमुख होने के नाते तहसीलदार को बकायदा सम्मान के साथ परघा कर मेले में ले जाते है। तहसीलदार को हजारी फूल का हार पहनाते है। शीतला माता, मौली मंदिर में पूजा तथा मेले की परिक्रमा होती है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है|
गांव के कोटवार हाथ में आम की टहनी लेकर मेला समिति के सदस्यों के साथ साप्ताहिक बाजार में घूमते हुए लोगों को मेले में आने का निमंत्रण देते है. मेला समिति के सचिव नरपति ने निमंत्रण पत्र और मेले के रस्म को बताते हुए कहा कि आम की टहनी से निमंत्रण देने का रिवाज सात सौ (700) साल पुराना है जो लगातार चला आ रहा है. गांव के मंदिरों में पूजा अर्चना कर आम की पट्टी का तोरण बांधने की परंपरा है. तोरण लेकर घूमने के बजाय आम की टहनी को लेकर कोटवार घूमता है. इसके अलावा साप्ताहिक बाजारों में आम की टहनी के साथ मुनादी करते हुए आमजनों को भी इसके जरिये निमंत्रण दिया जाता है.
कील गड़ाकर आपदा से बचाने का रिवाज
यू तो कोंडागांव मेले अपनी ऐतिहासिकता के साथ बहुरंगी आदिवासी संस्कृति, धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक सभ्यता एवं लोक परम्पराओं के निर्वहन के चलते अपना विशिष्ट स्थान रखता है. लेकिन बस्तर के इस मेले की बात ही निराली है. कोंडागांव जिले में 1330 से चली आ रही मेले की परम्परा आज भी वैसे ही है. मेले में दूर-दाराज से लोगों को निमत्रंण देकर बुलावा भेजा जाता है. इस परिपेक्ष में यहां मेले का अयोजन करने वाली मेला समिति की पूरी जिम्मेदारी होती है.
कोंडागांव मेले में आए लोगों को पूरी तरह से सुरक्षा देने की हालांकि आजकल पुलिस और जिला प्रशासन ने इसकी जिम्मेदारी ले रखी है, लेकिन सालों पुरानी इस परम्परा और रिति-रिवाज के अनुसार आज भी मेले की शुरूआत से समापन तक विभिन्न विधान मेला समिति के द्वारा नियमों से किए जाते है. चरण बद्ध तरीके से होने वाले परमपराओ में मेले के आगाज के पहले आपदा से बचने मेला स्थल में कील गड़ाया जाता है जिसे मांडो रस्म कहते है
पारम्परिक शिल्प का होता है कारोबार
इस पारंपरिक कोंडागांव मेले में अब व्यवसायिकता का तड़का भी लगने लगा है। मीना बाजार की तरह कई तरह के झूले यहां लगते हैं, साथ ही सरकारी स्तर पर हस्तशिल्प प्रदर्शनी, महिला समूह के उत्पाद का भी आयोजन किया गया है। देश की अन्य राज्यों से भी कारोबारी मेला में पहुंचते हैं। मेले में लकड़ी, बांस, बेलमेटल सहित कई तरह के हस्तशिल्प उत्पाद लोगों को आकर्षित कर रहे हैं वर्ष में एक बार लगने वाले मेले में खरीददारों की भीड़ उमड़ती है।
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