मंदिर के बारे में पूरी जानकारी :-
लिंगेश्वरी माता आलोर छत्तीसगढ़ में आलोर, फरसगांव स्थित एक ऎसा दरबार है। पंचायत की दांयी दिशा में अत्यंत ही मनोरम पर्वत श्रृंखला है। इस पर्वत श्रृंखला के बीचोंबीच धरातल से 100 मी. की ऊंचाई पर प्राचीनकाल की मां लिंगेश्वरी देवी की प्रतिमा विधमान है। आलोर मंदिर का दरवाजा साल में एक ही बार खुलता है।
लिंगेश्वरी माता के मंदिर का दरवाजा खुलते ही पांच व्यक्ति रेत पर अंकित निशान देखकर भविष्य में घटने वाली घटनाओं की जानकारी देते हैं। रेत पर यदि बिल्ली के पंजे के निशान हों तो अकाल और घो़डे के खुर के चिह्न हो तो उसे युद्ध या कलह का प्रतीक माना जाता है।
पीढि़यों से चली आ रही इस विशेष परंपरा और लोगों की मान्यता के कारण भाद्रपद माह में एक दिन शिवलिंग की पूजा होती है। लिंगेश्वरी माता का द्वार साल में एक बार ही खुलता है।सूर्य उदय के साथ ही दर्शन प्रारंभ होकर सूर्यास्त तक मां की प्रतिमा का दर्षन कर श्रद्धालुगण हर्श विभोर होते है।
ब़डी संख्या में नि:संतान दंपति यहां संतान की कामना लेकर आते हैं। उनकी मन्नत पूरी होती है। आलोर मंदिर कोंडागांव जिले के विकासखंड मुख्यालय फरसगांव से लगभग नौ किलोमीटर दूर पश्चिम में ब़डेडोंगर मार्ग पर गांव आलोर मंदिर स्थित है।
लिंगेश्वरी माता मंदिर साल में एक बार खुलता है आलोर मंदिर का कपाट | ALOR TEMPLE FARASGAON
गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर पश्चिमोत्तर में एक पह़ाडी है, जिसे लिंगाई माता के नाम से जाना जाता है। इस छोटी-सी पह़ाडी के ऊपर एक विस्तृत फैला हुआ चट्टान है।चट्टान के ऊपर एक विशाल पत्थर है।
बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर अंदर से स्तूपनुमा है। इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऎसा लगता है, मानो कोई विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराशकर चट्टान के ऊपर उलट दिया गया हो।
इस मंदिर की दक्षिण दिशा में छोटी-सी सुरंग है, जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार इतना छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जाता है। अंदर इतनी जगह है कि लगभग 25 से 30 आदमी आराम से बैठ सकते हैं।
गुफा के अंदर चट्टान के बीचो-बीच प्राकृतिक शिवलिंग है, जिसकी लंबाई लगभग दो या ढाई फुट होगी। प्रत्यक्षदर्शियों का मानना है कि पहले इसकी ऊंचाई बहुत कम थी। बस्तर का यह शिवलिंग गुफा गुप्त है।
वर्षभर में दरवाजा एक दिन ही खुलता है, बाकी दिन ढका रहता है। इसे शिव और शक्ति का समन्वित नाम दिया गया है लिंगाई माता। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के बाद आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है। दिनभर श्रद्धालु आते रहते हैं, दर्शन और पूजा-अर्चना करते हैं। इसके बाद पत्थर टिकाकर दरवाजा बंद कर दिया जाता है।
मंदिर से जुडी मान्यताएँ-
पहली मान्यता -कहा जाता है आलोर मंदिर ज्यादातर नि:संतान दंपति संतान की कामना से आते हैं।
संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले दंपति नियमानुसार खीरा चढ़ाते हैं। चढ़ाए हुए खीरे को नाखून से फ़ाडकर शिवलिंग के समक्ष ही (क़डवा भाग सहित) खाकर गुफा से बाहर निकलना होता है।
यह प्राकृतिक शिवालय पूरे प्रदेश में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है।
दूसरी मान्यता -स्थानीय लोगों का कहना है कि पूजा के बाद आलोर मंदिर की सतह (चट्टान) पर रेत बिछाकर उसे बंद किया जाता है। अगले वर्ष इस रेत पर किसी जानवर के पदचिह्न अंकित मिलते हैं।
निशान देखकर भविष्य में घटने वाली घटनाओं का अनुमान लगाया जाता है।
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